देश-विदेश को सेहत का वरदान देने वाली अश्वगंधा प्रदेश में अपनी वजूद नहीं बना पाई है। जबकि, दुनिया में नागौरी अश्वगंधा का डंका किसी से छिपा नहीं है। आज भी उच्च मूल्य वर्ग में शामिल इस जड़ी-बूटी को जंगली वनस्पति पौधा ही माना जाता है। शायद यही कारण है कि पांच कृषि विश्वविद्यालय होने के बावजूद भी प्रदेश में इस औषधीय पौधा पर कभी रिसर्च की कवायद ही नहीं हुई। इसके चलते किसान मजबूरन दूसरे राज्यों के उन्नत किस्म के बीच की खरीद कर रहे हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मांग होने के बावजूद भी अश्वगंधा की सुनियोजित खेती को प्रोत्साहित नहीं किया गया।
जबकि, पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश और गुजरात में इसकी जैविक खेती हजारों हेक्टेयर क्षेत्र में होने लगी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में 5 से 6 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में वनस्पति पौधा अश्वगंधा की खेती हो रही है। जबकि, प्रदेश में बुवाई का आंकड़ा 500 हैक्टेयर के करीब है। इससे बहुमूल्य फसल की अनदेखी का अंदाजा स्वतः ही लगाया जा सकता है। जानकारों के अनुसार आयुर्वेदिक दवाओं के लिए नागौरी अश्वगंधा की देश में सार्वधिक मांग है। यही नहीं बाजार में नागौरी अश्वगंधा के नाम से कई हर्बल उत्पाद बेचे जा रहे हैं।
जानकारों का कहां है कि पहले खानाबदोश लोग ही जंगली वनस्पति के रूप में पैदा हो रही अश्वगंधा को बाजार तक पहुंचाते थे। लेकिन, बाजार भाव को देखते हुए नागौर, चितौड़गढ़, बारा, झालावाड़, प्रतापगढ़ सहित दूसरे जिलों के किसान अश्वगंधा की जैविक खेती की है। लेकिन जो गुणवत्ता नागौरी अश्वगंधा की है, वह दूसरे जिलों में पैदा होने वाली उपज में नहीं है। यही कारण है कि बाजार में नागौरी अश्वगंधा की मांग सालों भर बनी रहती है। कृषि वैज्ञानिकों का कहां है कि पान मैथी की तरह नागौरी अश्वगंधा की गुणवत्ता यह की जलवायु के कारण है।
नागौरी अश्वगंधा की पहचान
अश्वगंधा एक जड़ी बूटी है, जिसे आयुर्वेदिक दवा के रूप में काम लिया जाता है। कहते है कि पहले यह राजस्थान के नागौर जिले में अधिक मात्रा में पैदा होती थी। इसलिए इसे नागौरी अश्वगंधा के नाम से जाना जाता है। अब व्यावसायिक रूप से इसकी खेती मध्य प्रदेश के मनासा, भानपुरा, जादव और नीमच में अधिक ही रही है। इसके अलावा पंजाब, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों में भी पाई जाती हैं। राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक मांग वाले पौधों में से एक बताया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे अत्यधिक औषधीय गुण वाला पौधा माना है। कोविड-19 के संक्रमण के दौरान भी इस वनस्पति ने अपना प्रभाव पीड़ित मरीजों पर छोड़ा है। नागौरी अश्वगंधा की जड़ों में अधिकतम जड़ भंगुरता (9.33 से 10 प्रतिशत) और स्टार्च सामग्री (55 प्रतिशत) के लिए भी विशिष्ट हैं। एक हैक्टेयर से इस फसल की 14 क्विंटल से अधिक जड़े काट सकते हैं।
अश्वगंधा की जैविक खेती पर मिलता है अनुदान
प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियां अश्वगंधा के लिए अनुकूल है। यहां अच्छी गुणवत्ता की अश्वगंधा का उत्पादन होता है। इसलिए इसकी देशभर में पहचान है। राजस्थान स्टेट मेडिसिनल प्लांट बोर्ड की ओर से औषधीय उत्पादन पर अनुदान भी दिया जाता है। किसान चाहे तो इसका लाभ ले सकते हैं।
सेहत के लिए कितना फायदेमंद
आयुर्वेद जानकारों के अनुसार अश्वगंधा जी जड़ में कई प्रकार के एल्केलाइड और एमिनो एसिड पाए गए हैं। वही, प्रोटीन, कार्बोहाईड्रेट, विदाफेरिन-ए की मात्रा पाई जाती है। जिनके कारण यह शरीर के लिए औषधि का काम करती है। इसके सेवन से थकान दूर होकर नई ताकत आ जाती है। अश्वगंधा की जड़ का चूर्ण दवा के रूप में लिया जाता है। शोधकर्ताओं ने अपने परीक्षण में पाया कि अश्वगंधा हिमोग्लोबिन बढ़ाने और कोलेस्ट्रॉल कम करने में सहायक है। इसके अलावा कैंसर, डिप्रेशन, एसिडिटी, अल्सर, हाई ब्लड प्रेशर, आदि में लाभदायक है। प्रतिदिन अश्वगंधा का सेवन करने से व्यक्ति के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
अश्वगंधा की जैविक खेती बढ़ा सकती है किसानों की आय
नागौरी अश्वगंधा एक सुखी प्रतिरोधी जड़ी बूटी है, जो मध्य प्रदेश से पश्चिमी राजस्थान के शुष्क से अर्द्धशुष्क क्षेत्र में उगाई जाती है। यह सोलानेसी परिवार से संबंधित है। पश्चिमी राजस्थान का एक विशाल क्षेत्र मिट्टी की कम उर्वरता, पानी की उपलब्धता और दूसरे संसाधनों की कमी के कारण कम उपयोग में रहता है। अश्वगंधा जड़ की बनावट, स्टार्च और फाइबर की मात्रा बाजार मूल्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऐसे में यह फसल किसानों की आय भी बढ़ाने का मादा रखती है। गौरतलब है कि प्रदेश में अश्वगंधा की खेती 546 हैक्टेयर क्षेत्र में हो रही है। वही, इसकी उत्पादकता 924 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है।
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