दक्षिण एशिया जैव प्रौद्योगिकी केंद्र के हालिया अध्ययन ने साबित कर दिया है कि ड्रिप सिंचाई, फर्टिजेशन और एकीकृत किट प्रबंधन जैसी तकनीकों को अपनाकर कपास की खेती में उल्लेखनीय सुधार किया जा सकता है। सिरसा जिले के गेंद्रन गांव स्थित एसएबीसी के उत्तर भारत हाई टेक आरएंडडी स्टेशन पर खरीफ 2024 में आयोजित हाई टेक पुनर्योजी कपास प्रदर्शन ने इस बदलाव के ठोस प्रमाण पेश किए।
एसएबीसी के संस्थापक निदेशक भागीरथ चौधरी ने बताया कि ड्रिप फर्टिजेशन प्रणाली के प्रयोग से उच्च अंकुरण दर और बेहतर पौधों की स्थापना सुनिश्चित हुई है, जिससे कपास की उपज क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों के जरिए पारंपरिक तरीकों की तुलना में सिंचाई जल की 60 प्रतिशत तक बचत संभव हुई है।
चौधरी ने कहां कि ड्रिप फर्टिजेशन से पोषक तत्वों के अवशोषण में भी जबरदस्त सुधार हुआ है। नाइट्रोजन में 54 प्रतिशत, फॉस्फोरस में 33 प्रतिशत और सल्फर में 79 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी देखी गई है। इससे फसल पोषण बेहतर हुआ और उर्वरकों की बर्बादी में कमी आई।प्रदर्शन परियोजना में कपास की औसत उपज 13 क्विंटल प्रति एकड़ रही, जो पिछले साल हरियाणा में दर्ज 8 से 9 क्विंटल प्रति एकड़ की अधिकतम उपज से काफी ज्यादा है।
इससे स्पष्ट है कि उन्नत कृषि तकनीकों का समुचित उपयोग किसानों को बेहतर उत्पादन और मुनाफा दे सकता है। एसएबीसी ने सुझाव दिया है कि ड्रिप फर्टिजेशन को कपास की खेती के लिए मानक पद्धति के रूप में व्यापक रूप से बढ़ावा दिया जाए। साथ ही, कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग को रोकने और पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए मेटिंग डीसरप्शन तकनीक और फेरोमोन ट्रैप आधारित निगरानी प्रणाली को अपनाने की भी सिफारिश की गई है।
ड्रिप फर्टिजेशन के साथ जल भंडारण टैंक और सौर ऊर्जा चालित सिंचाई प्रणालियों को अपनाना जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने और स्थाई जल प्रबंधन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। इस परियोजना की सफलता उत्तर भारत के किसानों, जीनर्स, स्पिनर्स और कपड़ा उद्योग के लिए नई उम्मीद लेकर आई है।
विशेषज्ञों का कहना है कि सटीक कृषि संसाधन कुशल प्रथाओं और आधुनिक कीट प्रबंधन रणनीतियों को अपनाकर उत्तरी भारत का कपास क्षेत्र न सिर्फ अपनी खोई हुई चमक वापस पा सकता है, बल्कि किसानों की आजीविका और उद्योग की दीर्घकालीन स्थिरता भी सुनिश्चित कर सकता है।
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