पपीता उष्ण कटिबंधीय फल है। इसकी अलग-अलग किस्मों को साल में तीन बार यथा जून-जुलाई अक्टूबर-नवंबर एवम मार्च अप्रैल में रोपाई किया जा सकता है। लेकिन बिहार में पपीता को जून जुलाई में लगाने की सलाह नही दी जाती है, क्योंकि उस समय मानसून सक्रिय रहता है एवं पपीते की फसल पानी को लेकर बहुत संवेदनशील होती है। यदि खेत में 24 घंटे से ज्यादा पानी लग गया तो पपीता की फसल को बचा पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है। पपीता की रोपाई से लेकर फल आने तक उचित मात्रा में पानी चाहिए।
पानी की कमी से पौधों और फलों की बढ़त पर असर पड़ता है, जबकि जल की अधिकता होने से पौधा नष्ट हो जाता है। यही कारण है कि इसकी खेती उन्हीं खेतों में की जानी चाहिए जहां पानी एकत्र न होता हो। गर्मी में हर हफ्ते तो ठंड में दो हफ्ते के बीच इनकी सिंचाई की व्यवस्था होनी चाहिए। अक्टूबर नवंबर में पपीता की खेती बहुत तेजी से प्रचलित हो रही है क्योंकि इसमें तुलनात्मक रूप से कम बीमारियां लगती है। पपीते की खेती के लिए उन्नत किस्म के बीजों को अधिकृत जगहों से ही लेना चाहिए।
बीजों को अच्छे जुताई किए हुए खेतों में एक सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए। बीजों को नुकसान से बचाने के लिए कीटनाशक-फफूंदनाशक दवाइयों से उपचारित करने के बाद ही लगाना चाहिए। पपीते का पौधा लगाने के लिए 60X60X60 सेंटीमीटर का गड्ढा बनाया जाना चाहिए। इसमें उचित मात्रा में नाइट्रोजन, फोस्फोरस और पोटाश और देशी खादों को रोपाई से 1 माह पूर्व डालने के बाद 15 से 20 सेंटीमीटर की ऊंचाई का तैयार पौधा इनमें रोपना चाहिए।
पपीते के बेहतर उत्पादन के लिए 20 डिग्री सेंटीग्रेड से लेकर 30 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान सबसे उपयुक्त होता है। इसके लिए सामान्य पीएच मान वाली बलुई दोमट मिट्टी बेहतर मानी जाती है। पपीते के पौधे में सफेद मक्खी से फैलने वाला वायरस के द्वारा होने वाला पर्ण संकुचन रोग और एफीड से रिंग स्पॉट रोग लगता है। बिना इन रोगों को प्रबंधित किए पपीता की खेती से लाभ नहीं प्राप्त किया जा सकता है।
पपीता में लगनेवाले विषाणुजनित रोगों को प्रबंधित करने की डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय एवम आईसीएआर एआईसीआरपी (फ्रूट्स) द्वारा विकसित तकनीक का प्रयोग करके पपीता में लगनेवाली अधिकांश बीमारियों को प्रबंधित किया जा सकता है जो निम्नवत है।पपीता रिंग स्पाट विषाणु रोग से सहिष्णु पपीता की प्रजातियों को उगाना चाहिए। राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय में पपीता की विभिन्न प्रजातियों का परीक्षण इस बीमारी के विरूद्ध किया गया एवं पाया गया कि पपीता की रेड लेडी प्रजाति सभी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ है।
बीमारी के बावजूद उन्नत कृषि के द्वारा प्रथम वर्ष 65 से 85 कि0ग्रा0/ पौधा बाजार योग्य फल लिया जा सकता है। इस तकनीक का विस्तृत ब्योरा निम्नवत है। नेट हाउस/पाली हाउस में बिचड़ा उगाना चाहिए जो इस रोग से मुक्त हो। क्योंकि नेट हाउस/पाली हाउस में एफिड को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है। बिचड़ों की रोपाई ऐसे समय करनी चाहिए जब पंख वाले एफिड न हों या बहुत कम हो क्योंकि इन्हीं के द्वारा इस रोग का फैलाव होता है।
प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि बिहार में मार्च अप्रैल एवं सितम्बर-अक्टूबर रोपाई हेतु सर्वोत्तम है। पपीता को छोटी-छोटी क्यारियों में लगाना चाहिए एवं क्यारियों के मेंड़ पर ज्वार, बाजड़ा, मक्का या ढैंचा इत्यादि लगाना चाहिए ऐसा करने से एफिड को एक क्यारी से दूसरे क्यारी में जाने में बाधा उत्पन्न होता है इसी क्रम में एफिड के मुँह में पड़ा विषाणु का कण के अन्दर रोग उत्पन्न करने की क्षमता में कमी आती है या समाप्त हो जाती है।
जैसे-ही कहीं भी रोगग्रस्त पौधा दिखाई दे तुरन्त उसे उखाड़ कर जला दें या गाड़ दें, नहीं तो यह रोग उत्पन्न करने में स्रोत का कार्य करेगा।एफिड को नियंत्रित करना अत्यावश्यक है क्योंकि एफिड के द्वारा ही इस रोग का फैलाव होता है। इसके लिए आवश्यक है कि इमीडाक्लोप्रीड 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर निश्चित अन्तराल पर छिड़काव करते रहना चाहिए। पपीता को वार्षिक फसल के तौर पर उगाना चाहिए। ऐसा करने से इस रोग के निवेशद्रव्य में कमी आती है तथा रोगचक्र टूटता है।
बहुवर्षीय रूप में पपीता की खेती नहीं करनी चाहिए। पपीता की खेती उच्च कार्बनिक मृदा में करने से भी इस रोग की उग्रता में कमी आती है। मृदा का परीक्षण कराने के उपरान्त जिंक एवं बोरान की कमी को अवश्य दूर करना चाहिए। ऐसा करने से फल सामान्य एवं सुडौल प्राप्त होते हैं। नवजात पौधों को सिल्वर एवं काले रंग के प्लास्टिक फिल्म से मल्चिंग करने से पंख वाले एफिड पलायन कर जाते हैं जिससे खेत में लगा पपीता इस रोग से आक्रान्त होने से बच जाता है।
उपरोक्त सभी उपाय अस्थाई हैं इससे इस रोग की उग्रता को केवल कम किया जा सकता है समाप्त नहीं किया जा सकता है। इन उपायों को करने से रोग, देर से दिखाई देता है। फसल जितनी देर से इस रोग से आक्रान्त होगी उपज उतनी ही अच्छी प्राप्त होगी। इस रोग का स्थाई उपाय ट्राँसजेनिक पौधों का विकास है। इस दिशा में देश में कार्य आरम्भ हो चुका है। विदेशों में विकसित ट्राँसजेनिक पौधों को यहाँ पर ला कर उगाया गया, तब ये पौधे रोगरोधिता प्रदर्शित नहीं कर सकें।
PC : डॉ. एसके सिंह प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक(प्लांट पैथोलॉजी) एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर बिहार
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